गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

रिअलिटी शो सच का सामना में शामिल एक महिला प्रतिभागी पर

हाँ, की है प्रेमी से तुमने
थोड़ी सी बेवफाई
माँ-बाप से झूठ भी बोली हो
किसी की चोट पर ख़ुशी होती है
यह राज भी तुम्ही खोली हो!
हथेली रंग ली है
सपने चुराएहै
सहेली की आंसू से
काजल भी सजाए हैं !
पर इन आँखों से अब भी
क्यों मासूमियत चहकती है
सम्पर्पण की आंधी से
तेरी सांसें जैसे बहकती है!
क्यों अब भी तेरा चेहरा
लगता है सच की ओस mein
भींगा अधखिला गुलाब
क्यों भीतर से निकलती है दुआ
मिले तुझे जहाँ की खुशियाँ
पूरे हो तेरे हर ख्वाब !
हाँ] मान लेती हो तुम
की परिस्थितियों ने
बना दिया है तुम्हे कुछ गन्दा
पर यकीं मानो
हो जायेगी दुनिया बेहद हसीं
गर तुम सा हो जाए
हर बन्दा!

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

कुछ बातें लहरों की

ह्रदय समुद्र की
भाव लहरें
लौट आती हैं
बार-बार
क्या किनारे का
पत्थर हो तुम?
चलती आयी हूँ
बहुत दूर से
पड़ गए छले हाय
पाँव में
क्या बिन मंजिल की
डगर हो तुम?
देती रही सदाएं
gunjee समग्र दिशाएँ
सिहर उठी फिजाएं
दिया क्यों नहीं प्रत्युत्तर
अस्तित्व में अगर हो तुम?



आखिर कर ही दिया
लहरों ने हस्ताक्षर
पत्थर पर
ढूंढने लगी मंजिल
मेरे हर कदम और
हर डगर !
आने लगे वे
डोर से बंधे से
मौन भी मेरा
दिखाता है असर!
सूख रहे हैं अब
छाले पाँव के
दे रहा आराम उन्हें
यह सुनहरा पर!
गुनगुना रही फिजा
पर दिशायें हतप्रभ
फुर्सत में सुनाऊँगी
उन्हें हाल ऐ सफ़र !

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

प्रतीक्षारत थी

सदियों से

पत्थेर के

अंतस में,

तुम झरना

बनकर आये

फूटकर

मैं बही

बन लहर लहर।

कालजयी

रात थी,

हुई अनोखी

बात थी,

स्मरणीय

इतिहास बना

वह सुनहरा पहर।

हो तुझमें समाहित

अंश-अंश आह्लादित ,

मंजिल के संग-संग

हुआ प्रारंभ सफ़र.

रविवार, 27 दिसंबर 2009

तुम ताज महल हो

दर्शनीय, मुग्धेय,

शांतिदाता

मुखरित, पवित्र,

प्रीतिगाथा

पर मेरी भावना से अंजान अलग हो

तुम ताजमहल हो।

करती तुझसे बेहद प्यार

तुम आकर्षण की मूर्ति साकार

तुम मेरा उत्साह,

मेरी चहल-पहल हो

तुम ताज महल हो,

तुम ताज महल हो।

tउम्हर सामीप्य

देता सकूँ

सामर्थ्य कहाँ

तुझमे रहूँ

तुम शहंशाहों के

ख़ास शगल हो

तुम ताजमहल हो

तुम ताजमहल हो।

रहोगे कैसे

यूँ अनछुए

शब्द जो मेरे

संगी हुए

बाँध लिया तुझे

तुम मेरे गजल हो

तुम ताजमहल हो,

तुम ताजमहल हो.

सो गयी प्रतीक्षा थक कर तब गुनगुनाते तुम आये
झुलस बिखर गए आस सुमन तब बदरी बन तुम छाये
यह महज संयोग नहीं प्रिय, हूँ सदियों से शापित मैं
चाह जिस यज्ञ से कुछ पाना बन शर्मिष्ठा हुई अर्पित मैं

रविवार, 20 दिसंबर 2009

शब्दॊं के सफर में आज से आप सभी के साथ

शब्दॊं के सफर में आज से आप सभी के साथ मैं भी