बुधवार, 31 मार्च 2010

अजन्मी वह

शायद दोष
अक्षरों का है
जो खुद को
संजो नहीं पाए
कोरे कागजों पर।
या फिर
कागजों ने ही
की है खता
कि खुद में समेट नहीं पाए
अक्षरों को।
पर सच है कि
खड़े हैं दोनों
समय के कटघरे में
कि एक सुन्दर कृति
रह गई अजन्मी।

मंगलवार, 30 मार्च 2010

आस जगे जब दिया जले

भोर की किरणें छितर जाएं,
(सुबह ऑफिस के लिए निकलने का दृश्य)

दोपहर यंू ही गुजर जाए,
(ऑफिस में काम का दृश्य)

तेरी गंध की जो याद आए,


तनहाई पसर जाए।
(लंच बॉक्स खोलते ही पत्नी की याद)

मिलन हो जब शाम ढले।
(शाम को दोनों अपने-अपने ऑफिस से निकल कर किसी मोड़ पर मिलते हैं।)

साथिया आ पास मेरे,

दो कदम हम भी चलें।

कैसी हुई यह जिंदगानी,

जीते हैं हम उनकी कहानी,
(ऑफिस में बॉस पात्र को कोई निर्देश दे रहा है)


बिखरी पड़ी खुशियां हमारी,

बढ़ता समय अपनी रवानी।
(बॉस प्रजेंटेशन के पेपर असंतुष्टि के साथ टेबल पर बिखेरता है जिसे पात्र हाथों से उठाते हैं)

आश जगे जब दीया जले,
(शाम को ऑफिस से आने के बाद दरवाजे का ताला खोल कर घर में प्रवेश करते हैं। पूरा अंधेरा है और पात्र बल्ब का स्विच ऑन कर एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कुराते हैं।)

साथिया आ पास मेरे,

दो कदम हम भी चलें।


कविता की ये पंक्तियां शायद आधी-अधूरी हैं पर मेरे दिल के बेहद करीब हैं। कहानी शुरू करने से पहले बता दंू कि यह वर्किंग कपल पर बनने वाले एक धारावाहिक के टाइटिल सॉन्ग का हिस्सा है जिसे मैंने वर्ष २००३ की शुरूआती तिमाही में ईटीवी बिहार के लिए लिखा था। उनदिनों मैं वहीं काम करती थी। एक दिन प्रोड्यूसर राजीव मिश्रा ने मुझसे कहा कि शहर के वर्किंग कपल की दिनचर्या पर एक धारावाहिक दो कदम हम भी चले तैयार करना है। पायलट एपिसोड के लिए कोई अट्रैक्टिव कपल हो तो बताओ। मैंने झट से निवेदिता झा का नाम लिया। वे उन दिनों राष्ट्रीय सहारा में थीं। उनके पति डॉक्टर हैं। निवेदिता जी की पूरी पर्सनैलिटी मुझे बेहद आकर्षक लगती थी। लंबा कद, सुन्दर चेहरा, लंबे बाल...और सबसे खास उनकी बड़ी सी गोल लाल बिंदी। बिल्कुल जीवंत कविता सी। और उनका जीवन रोमांचक कहानी सा। समाज से संघर्ष कर दूसरे धर्म में शादी और शादी के बाद अपनी पहचान कायम रखने के लिए फिर
एक नए समाज से जूझना। (पिछले दिनों भी तो राष्ट्रीय सहारा प्रबंधन से किसी मुद्दे पर डट कर लडऩे और फिर समपर्ण की जगह कहीं और ज्वॉइन करने की खबर भड़ास फोर मीडिया में पढ़ी थी।)
खैर...मैंने राजीव जी के सामने उनकी पर्सनैलिटी का कुछ ऐसा ही चित्र खींच दिया। बस क्या था..., शाम को हम उनके बोरिंग रोड स्थित सुन्दर से फ्लैट में थे और उनकी जिंदगानी से रूबरू हो रहे थे। नाम फायनल हुआ तो राजीव जी ने तुरन्त ही इसका टाइटिल सॉन्ग लिखने को कहा। फिर मैंने यही कुछ पंक्तियां लिखी थी। धारावाहिक अभी कागजों पर ही था कि जून महीने में मेरी शादी हो गई और मैं बाबुल का आंगन ही नहीं एग्जीबिशन रोड स्थित अपना दफ्तर भी छोड़ कर राजस्थान चली आई। दो महीने के भीतर ही मैंने भास्कर ज्वॉइन कर लिया और इन पंक्तियों को अपनी दिनचर्या में मौजूद पाया। खासतौर पर
आश जग जब दिया जले....।

रविवार, 7 मार्च 2010

यह औरतों का काम क्या होता है

अभी दो दिन पहले ही ऑफिस में महिला दिवस स्पेशल अंक पर चर्चा हो रही थी। इस अंक को पूरे दैनिक भास्कर नेटवर्क की 18 महिलाएं तैयार कर रही हैं। इनमें दो हमारे सेंटर (जयपुर) की भी हैं। चर्चा के दौरान हमारी एक अन्य महिला सहकर्मी ने मजाकिया लहजे में कहा कि मुझे भी इस टीम में शामिल होने के लिए किसी ने कहा था, पर औरतों के काम में मेरी कोई रुचि नहीं।बात छोटी सी है, पर मुद्दा पुराना है।
काम , गुण, प्रवृति... इन को हम औरताना और मर्दाना में बांटना कब बंद करेंगे ? कब तक बेटे के रोने पर उसे, क्या लड़कियों की तरह रोते हो कह कर चुप कराएँगे। इसके लिए सेमिनारों, उबाऊ भाषणों या आयोजनों की उठा-पटक की बजाय रुटीन में छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखना अधिक असरकारक होगा।
हमारे एक बहुत सीनियर सर हैं। इन दिनों भोपाल में पदस्थ हैं। इनके साथ मुझे करीब दो वर्षों तक काम करने का अवसर मिला . मैंने उन्हें कभी महिला मुद्दों पर बड़ी-बड़ी बातें करते नहीं सुना। पर व्यवहार में वे जो छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते हैं, वह महिला सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण सूत्र सा लगता है। एक छोटा सा उदाहरण देखिए। वे हमें घूघंट वाली फोटो अक्सर अवॉइड करने की सलाह देते हैं। बात छोटी सी है, पर महिलाएं जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं, उसमें ऐसे कदम बेहद निर्णायक साबित हो सकते हैं। महिलाओं पर जहां एक ओर के बाहर आधुनिकता अपनाने का दवाब है, वहीं घर के भीतर उनसे वही पुरानी छवि की मांग की जाती है। मतलब, आप अच्छे पद पर हैं, अच्छा कमा रही हैं, तो बहुत अच्छी बात है। इससे घर के सामाजिक और आर्थिक रुतबे में इजाफा होता है। पर घर घुसते ही 6 हाथ की साड़ी में अपनी गतिशीलता समेट कर अपनी हद में आ जाएं। कम से कम घर के छोटे-बड़े आयोजनों में तो उनसे यही उम्मीद की जाती है। यह घूंघट महिलाओं की गतिशीलता में सबसे बाधक है। यह उतनी ही दूर देखने की इजाजत देता है जितना घर के मर्द चाहते हैं। इस सन्दर्भ में चर्चा चलने पर राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष विभा पार्थसारथी का करीब 10 वर्ष पहले दिया गया इंटरव्यू भी याद आ जाता है। उन्होंने लिखा था कि नन्हें बेटे के लिए किताब खरीदने गईं तो किताब चाहे हिन्दी में लिखी गई हो या अंग्रेजी में, पुरुष ही पुरुष छाए थे। उन्होंने उन •किताबों में पुरुषों के बने कुछ चित्रों को कलम की सहायता से लड़कियों का रूप देना शुरु किया .छोटी सी बात, पर फिर वही गहरे असर वाली। बच्चे के संस्कार को प्रभावित करने वाली।
हम शर्माते हैं, आधिक महत्वाकांक्षा नहीं पालते, चूहों-काक्रोच से डरते हैं...महिलोचित माने जाने वाले इन गुणों के प्रदर्शन से अक्सर हमें कंही न कंही खुशी मिलती है। क्रोध , साहस के प्रदर्शन से बचते हैं कि कहीं हम लेस फेमिनाइन नहीं मान ली जाएं। छोटी सी बच्ची से पूछिए, फेवरिट कलर क्या है, झट से बोल देगी-पिंक । क्यों पिंक ही...फिर वही बात कि यह संस्कार तो हमने ही उसमें कहीं ना कहीं पिरोया हैं।हम डरते हैं कि बेटी लडक़ी कि तरह नहीं पलेगी तो उसे एडजस्टमेंट में दिक्कत होगी।
जब बात एडजस्टमेंट की उठी है तो स्पष्ट कर दूं kइ मनोविज्ञान हमारी इस आशंका को बिलकूल निराधार मानता है। मनोविज्ञान यह स्पष्ट कर चुका है कि सफल और सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए औरतों के गुण यानी स्नेह, ममता, सहनशीलता, उदारता आदि की जितनी जरुरत होती है उतना ही जरुरी होता वीरता, सहस, क्रोध जैसा पुरुषों का माना जाने वाला गुण। यानी एक अच्छा और सफल व्यक्तित्व वही है जिसमें महिलाओं व पुरुषों, दोनों के गुण संतुलित मात्रा में उपलब्ध हों। मनोविज्ञान ऐसे व्यक्तित्व को एंड्रोजेनस कहता है। अपनी भारतीय संस्कृति में इसे ही अर्धनारीश्वर का नाम दिया गया है। तो इस महिला दिवस पर हम प्रण लें कि कामों गुणों व प्रवृतियों को महिला और पुरुष के खाने में बांटना बंद करेंगे । बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि वह उसे ही हीन नहीं समझे, जो नौ महीने न केवल उसे कोख में रखती है बल्कि बाद के जीवन के भी करीब चौथाई हिस्से तक उसके शारीरिक - मानसिक विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है।