अभी दो दिन पहले ही ऑफिस में महिला दिवस स्पेशल अंक पर चर्चा हो रही थी। इस अंक को पूरे दैनिक भास्कर नेटवर्क की 18 महिलाएं तैयार कर रही हैं। इनमें दो हमारे सेंटर (जयपुर) की भी हैं। चर्चा के दौरान हमारी एक अन्य महिला सहकर्मी ने मजाकिया लहजे में कहा कि मुझे भी इस टीम में शामिल होने के लिए किसी ने कहा था, पर औरतों के काम में मेरी कोई रुचि नहीं।बात छोटी सी है, पर मुद्दा पुराना है।
काम , गुण, प्रवृति... इन को हम औरताना और मर्दाना में बांटना कब बंद करेंगे ? कब तक बेटे के रोने पर उसे, क्या लड़कियों की तरह रोते हो कह कर चुप कराएँगे। इसके लिए सेमिनारों, उबाऊ भाषणों या आयोजनों की उठा-पटक की बजाय रुटीन में छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखना अधिक असरकारक होगा।
हमारे एक बहुत सीनियर सर हैं। इन दिनों भोपाल में पदस्थ हैं। इनके साथ मुझे करीब दो वर्षों तक काम करने का अवसर मिला . मैंने उन्हें कभी महिला मुद्दों पर बड़ी-बड़ी बातें करते नहीं सुना। पर व्यवहार में वे जो छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते हैं, वह महिला सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण सूत्र सा लगता है। एक छोटा सा उदाहरण देखिए। वे हमें घूघंट वाली फोटो अक्सर अवॉइड करने की सलाह देते हैं। बात छोटी सी है, पर महिलाएं जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं, उसमें ऐसे कदम बेहद निर्णायक साबित हो सकते हैं। महिलाओं पर जहां एक ओर के बाहर आधुनिकता अपनाने का दवाब है, वहीं घर के भीतर उनसे वही पुरानी छवि की मांग की जाती है। मतलब, आप अच्छे पद पर हैं, अच्छा कमा रही हैं, तो बहुत अच्छी बात है। इससे घर के सामाजिक और आर्थिक रुतबे में इजाफा होता है। पर घर घुसते ही 6 हाथ की साड़ी में अपनी गतिशीलता समेट कर अपनी हद में आ जाएं। कम से कम घर के छोटे-बड़े आयोजनों में तो उनसे यही उम्मीद की जाती है। यह घूंघट महिलाओं की गतिशीलता में सबसे बाधक है। यह उतनी ही दूर देखने की इजाजत देता है जितना घर के मर्द चाहते हैं। इस सन्दर्भ में चर्चा चलने पर राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष विभा पार्थसारथी का करीब 10 वर्ष पहले दिया गया इंटरव्यू भी याद आ जाता है। उन्होंने लिखा था कि नन्हें बेटे के लिए किताब खरीदने गईं तो किताब चाहे हिन्दी में लिखी गई हो या अंग्रेजी में, पुरुष ही पुरुष छाए थे। उन्होंने उन •किताबों में पुरुषों के बने कुछ चित्रों को कलम की सहायता से लड़कियों का रूप देना शुरु किया .छोटी सी बात, पर फिर वही गहरे असर वाली। बच्चे के संस्कार को प्रभावित करने वाली।
हम शर्माते हैं, आधिक महत्वाकांक्षा नहीं पालते, चूहों-काक्रोच से डरते हैं...महिलोचित माने जाने वाले इन गुणों के प्रदर्शन से अक्सर हमें कंही न कंही खुशी मिलती है। क्रोध , साहस के प्रदर्शन से बचते हैं कि कहीं हम लेस फेमिनाइन नहीं मान ली जाएं। छोटी सी बच्ची से पूछिए, फेवरिट कलर क्या है, झट से बोल देगी-पिंक । क्यों पिंक ही...फिर वही बात कि यह संस्कार तो हमने ही उसमें कहीं ना कहीं पिरोया हैं।हम डरते हैं कि बेटी लडक़ी कि तरह नहीं पलेगी तो उसे एडजस्टमेंट में दिक्कत होगी।
जब बात एडजस्टमेंट की उठी है तो स्पष्ट कर दूं kइ मनोविज्ञान हमारी इस आशंका को बिलकूल निराधार मानता है। मनोविज्ञान यह स्पष्ट कर चुका है कि सफल और सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए औरतों के गुण यानी स्नेह, ममता, सहनशीलता, उदारता आदि की जितनी जरुरत होती है उतना ही जरुरी होता वीरता, सहस, क्रोध जैसा पुरुषों का माना जाने वाला गुण। यानी एक अच्छा और सफल व्यक्तित्व वही है जिसमें महिलाओं व पुरुषों, दोनों के गुण संतुलित मात्रा में उपलब्ध हों। मनोविज्ञान ऐसे व्यक्तित्व को एंड्रोजेनस कहता है। अपनी भारतीय संस्कृति में इसे ही अर्धनारीश्वर का नाम दिया गया है। तो इस महिला दिवस पर हम प्रण लें कि कामों गुणों व प्रवृतियों को महिला और पुरुष के खाने में बांटना बंद करेंगे । बच्चों को ऐसे संस्कार दें कि वह उसे ही हीन नहीं समझे, जो नौ महीने न केवल उसे कोख में रखती है बल्कि बाद के जीवन के भी करीब चौथाई हिस्से तक उसके शारीरिक - मानसिक विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है।
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लिखित अनुम...
8 वर्ष पहले
बहुत अच्छा और विचारप्रधान आलेख, महिला दिवस पर एक अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंऔरताना और मर्दाना में बांटना कब बंद करेंगे ? कब तक बेटे के रोने पर उसे, क्या लड़कियों की तरह रोते हो कह कर चुप कराएँगे। चेतना जी आपने हमारे दिल की बात लिख दी। बहुत अच्छा। हमने आज दोपहर इसी विचार को उठाने जा रहे थे और लगभग 90 फीसदी सफलता भी मिल गई थी, लेख को पोस्ट करता। इससे पहले की हमारे ई.मेल पर एक मेल टपका जिसमें आपकी बेहतरीन प्रस्तुति ......यह औरतों का काम क्या होता है, आंखों के सामने हाजिर हो गई। चेतना जी सच मानिये आपने बहुत अच्छा लिखा है। वैसे भी आप ठहरे बेहतरीन लिखाड। बहुत अच्छा लगा, मै आगे भी आपके इसी तरह के लेख देखना पसंद करूंगा।
जवाब देंहटाएंसुनील पाण्डेय
इलाहाबाद, नई दिल्ली
09953090154
मैं आपका पहला लेख पढ़ रहा हूं और वह भी इतना सार्थक। बाइ द वे मैं भी जर्नलिस्ट हूं और बिजनेस भास्कर में दिल्ली में कार्यरत हूं। मेरा मानना है कि मीडिया का विस्तार आज इतना हो चुका है कि इसके जरिए विचारों को गोली की गति से लोगों तक पहुंचाया जा सकता है, तो इसका फायदा बुद्धिजीवियों को उठाना चाहिए। आज महिलाओं की भूमिका के बारे में फिर से विचार करने का वक्त आ गया है और इसके लिए सभी को अपना नजरिया बदलना पड़ेगा। आप जिस प्रदेश में इस समय बैठी हैं वहां भी महिलाएं अपनी वास्तविक भूमिका में आने का प्रयास कर चुकी हैं। मैं जयपुर का ही रहने वाला हूं और इसे मैंने साफ तौर पर नोटिस किया है। धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरतन सिंह शेखावत
पूरा लेख विचारोत्तेजक!! लेकिन महिला साथी का ये कहाँ ..क्या आपको ठीक लगा.निसंदेह नहीं..पुरुष वर्चाव जब तक रहेगा स्थिति मुझे तो नहीं लगता कि कुछ ख़ास बदलने वाली है.लेकिन हमें विश्वास है अच्छे दिन ज़रूर आयेंगे.
जवाब देंहटाएंSpasht aur sashakt aalekh..aapke vicharon se sahmat hun!
जवाब देंहटाएंचेतना जी,
जवाब देंहटाएंमैं भी यही मानती हूँ कि हमें बच्चों के पालन-पोषण में और अपने दैनिक कार्यकलाप में छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना चाहिये, जिससे कम से कम हमारी आने वाली पीढ़ी जेंडर बायस न हो. यह पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं-
"हम शर्माते हैं, आधिक महत्वाकांक्षा नहीं पालते, चूहों-काक्रोच से डरते हैं...महिलोचित माने जाने वाले इन गुणों के प्रदर्शन से अक्सर हमें कंही न कंही खुशी मिलती है। क्रोध , साहस के प्रदर्शन से बचते हैं कि कहीं हम लेस फेमिनाइन नहीं मान ली जाएं। छोटी सी बच्ची से पूछिए, फेवरिट कलर क्या है, झट से बोल देगी-पिंक । क्यों पिंक ही...फिर वही बात कि यह संस्कार तो हमने ही उसमें कहीं ना कहीं पिरोया हैं।हम डरते हैं कि बेटी लडक़ी कि तरह नहीं पलेगी तो उसे एडजस्टमेंट में दिक्कत होगी।"
खुब लिखा है आपने .....
जवाब देंहटाएंयही छोटी छोटी बातें दूर तक जा संस्कारों ( या कुसंस्कारों )में बदल जाती हैं .शसक्त ,विचारोतेज्जक और अनुकरणीय आलेख . स्वागत है आपका .
जवाब देंहटाएंजिस दिन युवतिया पढ़ लेंगी पुरुषो की दादागिरी खत्म हो जाएँगी
जवाब देंहटाएंBehad damdaar aalekh..swagat hai!
जवाब देंहटाएंWah! Bahut khoob likha hai aapne!
जवाब देंहटाएंआज जब महिला आरक्षण बिल पास होरहा है तो आप का लेख और समीचीन और सामयिक लगता है। जब भारतीय मर्द महिलाओं को देश चलाने के योग्य समझते हैं तो फिर जनाना और मर्दाना क्या होता है ?
जवाब देंहटाएंआप का पहला ही पोस्टिंग सार्गर्भित और सम्_सामयिक है।साकेतानन्द.
इस नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंविचारोतेजेक.. !
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