हो रही तब्दील पत्थर में,
जिसमें न स्पन्दन है,
और न सृजन!
चिडिय़ों की चहचहाहट
सी किलकारी भी
पड़ोस के पेड़ों तक सीमित,
सूना मेरा आंगन!
चरम पर है
फूट कर बहने की चाहत
सहूं असीम पीड़ा का सुख
गंूजे उसका रुदन!
कपोल फूटने का स्वप्न लिए
झुकती हैं आंखें,
पर वहां फिर न सृजन
न स्पन्दन!
बस बहती हैं आंखें
बिना सींचे कोई फसल
भटकता है पानी
निरुद्देश्य, निरर्थक।
और फिर यह पानी
आग में हो जाता तब्दील
बचती है बस
राख और धुआं,
यहां कहां सृजन
कैसा स्पन्दन!
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8 वर्ष पहले