शनिवार, 14 मई 2011

चाहतों की दो समानान्तर नदियां

कूड़ों की ढेर में
मिलती है
नन्ही सी जान।
नमक चटा कर
आज भी लिए
जाते हैं
अनचाही बेटियों के प्राण।
कोख में ही
जो खत्म नहीं
कर दिए जाते
वे बच्चे रेल,
सड़क और चौराहों पर
चिथड़ों में लिपटे मिलते हैं।
मां के दूध के लिए
अनाथालयों में
रात- दिन रूदन गंूजते हैं।
...और मंदिरों में बजती हैं
घंटियां, दरगाहों में
बांधे जाते हैं
मन्नत के धागे।
एक औलाद की चाहत में
शरीर परखनली बन जाता है
भटकते है
कितने ही अभागे।


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