भोर की किरणें छितर जाएं,
(सुबह ऑफिस के लिए निकलने का दृश्य)
दोपहर यंू ही गुजर जाए,
(ऑफिस में काम का दृश्य)
तेरी गंध की जो याद आए,
तनहाई पसर जाए।
(लंच बॉक्स खोलते ही पत्नी की याद)
मिलन हो जब शाम ढले।
(शाम को दोनों अपने-अपने ऑफिस से निकल कर किसी मोड़ पर मिलते हैं।)
साथिया आ पास मेरे,
दो कदम हम भी चलें।
कैसी हुई यह जिंदगानी,
जीते हैं हम उनकी कहानी,
(ऑफिस में बॉस पात्र को कोई निर्देश दे रहा है)
बिखरी पड़ी खुशियां हमारी,
बढ़ता समय अपनी रवानी।
(बॉस प्रजेंटेशन के पेपर असंतुष्टि के साथ टेबल पर बिखेरता है जिसे पात्र हाथों से उठाते हैं)
आश जगे जब दीया जले,
(शाम को ऑफिस से आने के बाद दरवाजे का ताला खोल कर घर में प्रवेश करते हैं। पूरा अंधेरा है और पात्र बल्ब का स्विच ऑन कर एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कुराते हैं।)
साथिया आ पास मेरे,
दो कदम हम भी चलें।
कविता की ये पंक्तियां शायद आधी-अधूरी हैं पर मेरे दिल के बेहद करीब हैं। कहानी शुरू करने से पहले बता दंू कि यह वर्किंग कपल पर बनने वाले एक धारावाहिक के टाइटिल सॉन्ग का हिस्सा है जिसे मैंने वर्ष २००३ की शुरूआती तिमाही में ईटीवी बिहार के लिए लिखा था। उनदिनों मैं वहीं काम करती थी। एक दिन प्रोड्यूसर राजीव मिश्रा ने मुझसे कहा कि शहर के वर्किंग कपल की दिनचर्या पर एक धारावाहिक दो कदम हम भी चले तैयार करना है। पायलट एपिसोड के लिए कोई अट्रैक्टिव कपल हो तो बताओ। मैंने झट से निवेदिता झा का नाम लिया। वे उन दिनों राष्ट्रीय सहारा में थीं। उनके पति डॉक्टर हैं। निवेदिता जी की पूरी पर्सनैलिटी मुझे बेहद आकर्षक लगती थी। लंबा कद, सुन्दर चेहरा, लंबे बाल...और सबसे खास उनकी बड़ी सी गोल लाल बिंदी। बिल्कुल जीवंत कविता सी। और उनका जीवन रोमांचक कहानी सा। समाज से संघर्ष कर दूसरे धर्म में शादी और शादी के बाद अपनी पहचान कायम रखने के लिए फिर
एक नए समाज से जूझना। (पिछले दिनों भी तो राष्ट्रीय सहारा प्रबंधन से किसी मुद्दे पर डट कर लडऩे और फिर समपर्ण की जगह कहीं और ज्वॉइन करने की खबर भड़ास फोर मीडिया में पढ़ी थी।)
खैर...मैंने राजीव जी के सामने उनकी पर्सनैलिटी का कुछ ऐसा ही चित्र खींच दिया। बस क्या था..., शाम को हम उनके बोरिंग रोड स्थित सुन्दर से फ्लैट में थे और उनकी जिंदगानी से रूबरू हो रहे थे। नाम फायनल हुआ तो राजीव जी ने तुरन्त ही इसका टाइटिल सॉन्ग लिखने को कहा। फिर मैंने यही कुछ पंक्तियां लिखी थी। धारावाहिक अभी कागजों पर ही था कि जून महीने में मेरी शादी हो गई और मैं बाबुल का आंगन ही नहीं एग्जीबिशन रोड स्थित अपना दफ्तर भी छोड़ कर राजस्थान चली आई। दो महीने के भीतर ही मैंने भास्कर ज्वॉइन कर लिया और इन पंक्तियों को अपनी दिनचर्या में मौजूद पाया। खासतौर पर
आश जग जब दिया जले....।