दो-चार गलियों की
थी दूरी, पर राह चलते
दिख ही जाता था उसका घर।
कभी छत पर सूख रहे कपड़े
तो कभी खिड़की से
झांकता कोई चेहरा
आ ही जाता था नजर।
राह चलते दिखता उसका घर
घर नहीं चिराग था
ईट-पत्थर नहीं,
उसके जर्रे-जर्रे में
मेरा ख्वाब था।
कोन सा था पेड़
यह तो याद नहीं
पर खिड़कियों से
उसकी टहनी की
वह आंख मिचौली
सजा देती थी
मन-आंगन में
सुंदर रंगोली।
फिर गलियों में उग आए
कंक्रीट के असंख्य जंगल
और ओझल होने लगा
मेरा चिराग...
मेरा ख्वाब।
हमारे दिलों में भी उग रहे थे
असंख्य सवाल
पर कहीं नहीं था जवाब।
अनुत्तरित सवालों के जंगल में
खिल नहीं पाईं
ख्वाहिशों की मासूम कलियां,
आज दूर बहुत दूर हूँ
पर दिल में आज भी
गुलजार हैं वे गलियां।
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