ह्रदय समुद्र की
भाव लहरें
लौट आती हैं
बार-बार
क्या किनारे का
पत्थर हो तुम?
चलती आयी हूँ
बहुत दूर से
पड़ गए छले हाय
पाँव में
क्या बिन मंजिल की
डगर हो तुम?
देती रही सदाएं
gunjee समग्र दिशाएँ
सिहर उठी फिजाएं
दिया क्यों नहीं प्रत्युत्तर
अस्तित्व में अगर हो तुम?
२
आखिर कर ही दिया
लहरों ने हस्ताक्षर
पत्थर पर
ढूंढने लगी मंजिल
मेरे हर कदम और
हर डगर !
आने लगे वे
डोर से बंधे से
मौन भी मेरा
दिखाता है असर!
सूख रहे हैं अब
छाले पाँव के
दे रहा आराम उन्हें
यह सुनहरा पर!
गुनगुना रही फिजा
पर दिशायें हतप्रभ
फुर्सत में सुनाऊँगी
उन्हें हाल ऐ सफ़र !
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लिखित अनुम...
8 वर्ष पहले
बहुत ही खूबसूरत रचना। एक-एक शब्द यूं पिरोया हुआ है जैसे माला में मोती। आपकी हर रचना में एक ताजगी है। बधाई।
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