गुरुवार, 28 जनवरी 2010

कुछ पाती एक शाम के नाम

हां, मैं उदास हंू,
तन्हाइयों के पास हंू।
दूर तक
विस्तार है,
अंतहीन
आकार है,
चांद-तारों बिना
मैं आकाश हंू।
हां, मैं उदास हंू।
बंजर
जमीन है,
नभ
नीर हीन है,
बिखरे बीज का
मैं प्रयास हंू।
हां, मैं उदास हंू।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें